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ख़बरों के बदलते मायने

आवाज़-ए-हिन्द
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अब्दुल रशीद /सिंगरौली
आज जबकि 24 घंटे खबरीया चैनलों कि भरमार है फिर भी सुबह चाय के साथ अखबार लोग बेहद चाव से पढते हैं कारण हकीक़त जानने कि भूख। बात अजीब है लेकिन सौ प्रतिशत सही के आम जनता सच्ची खबर के अभाव में कुपोषण का शिकार होती जा रही है। नतीज़ा विकृत मानसिकता का जन्म हो रहा है जो समाज के लिए ठीक नही है। जिस प्रकार दुध का डब्बा न केवल बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है बल्कि प्राकृतिक पोषण व मां से मिलने वाली ममता के एहसास से भी वंचित करता है। ठीक उसी प्रकार प्रायोजित खबर न केवल आम जनता के स्वस्थ्य विचार को हि इनफेक्टेड करता है बल्कि उनके आवाज व हक़ को भी प्रभावित करता है।कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश खबरों का केन्द्र बना रहा हर रोज बलत्कार कि घटना व भूमि अधिग्रहण कि खबर प्रमुख खबर बना। क्या यह आने वाले चुनाव का राजनैतिक प्रसारण है या संयोग मात्र है? मेरे कहने का यह अर्थ नही के यह बड़ी खबर नहीं यकीनन है लेकिन क्या सिर्फ सुर्ख़ियाँ लिखना व नेताओं के साथ जा कर रिपोर्टिंग करना हि क्या सच्ची खबर परोसने का माप दण्ड है? आखिर क्यों नही कोई पत्रकार सुर्खियों कि तह तक जाकर व नेताओं से अलग होकर रिपोर्टिंग कि,दरअसल आमजन कि आवाज के नाम पर पाखण्ड करने वाले भी अब व्यापारी हो गए हैं,अपने हर काम कि कीमत तय कर ली है और उसी के मुताबिक लिखते हैं खबर। खबर की अहमियत खबर से मिलने वाली टीआरपी व विज्ञापन पर निर्भर करता है।
सिंगरौली मध्य प्रदेश में भी प्रदूषण कि समस्या है बलात्कार होता है किसानों कि जमीन का अधिग्रहण हुआ लेकिन मुद्दा नहीं मुद्दा भट्टा पर्सौल है उत्तर प्रदेश है क्योंकि चुनाव नजदीक है और चुनाव में पैसा कैसे खर्च होता है इस बात से शायद हि कोई अनजान हो।
आज भी अखबार को लोग कागज पर स्याही से लिखे शब्द से ज्याद हकीक़त का आईना व अपनी आवाज समझते है। क्या यह भ्रम टुट जाएगा या अखबार इस भ्रम को कायम रखने की इमानदार कोशिश करेगी? यह परिणाम तो भविष्य के गर्भ में छुपा है लेकिन आज ऐसा लगता है कि लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ दिग्भ्रमित है।

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